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आदिवासी विकास;परिकल्पना,वास्तविकता और झारखंड राज्य के विकास की राह

 आदिवासी अपने क्षेत्रों के प्राचीनतम निवासी हैं. अफ्रीका के जुलू और मसाई,यूरोप के जिप्सियों,अमेरिका के चिरोकी और अपाचे इंडियन्स,ऑस्ट्रेलिया में ऐबोरिजिन्स, न्यूजीलैंड के माओरी.अपने ही देश में उत्तरांचल के लेपचा,भूटिया; नार्थ ईस्ट में मिज़ो,नागा,गारो,खासी,मध्य भारत में संथाल,ऊरांव,मुंडा,गोंड,भील,दक्षिण भारत में टोड,बडागा एवं वेद्दा तथा अंडमान के जरावा एवं सेंटलनीज़.

हमारे झारखंड में संताल परगना के राजमहल की पहाड़ियों से लेकर पलामू गुमला के पठारी भूखंडों तक;कोडरमा हजारीबाग के मैदानी भूभाग से लेकर सिंहभूम के गुंझान जंगलों तक विभिन्न आदिवासी समुदायों का वास ऐसे मिलेगा जैसे प्रकृति ने विशेष रूप से इन्हें इन जगहों में स्वयं बसाया हो.झारखंड प्रदेश प्राकृतिक बनावट में पठार,पहाड़ियों से भरा है.भौगोलिक रूप में प्रमाणित है कि यह भूखंड दुनिया के प्राचीनतम् भूखण्डों में से है.वास्तव में यह क्षेत्र आदिवासियों की ही वास भूमि रही है.आदिवासियों की जितनी प्रजातियों यहाँ वास करती है,उतनी विभिन्नता विश्व के किसी और क्षेत्र में कहीं और नहीं दिखाई देती.हम आदिवासी यहाँ के इंडिजेनस लोग हैं.

पहाड़िया,संताल,उरांव,मुंडा,हो,खरवार,बिरजिया, कोरवा,असुर,बिरहोर,खड़िया,चेरो,किसान,भूमिज और कई 32 तरह की जनजातियाँ.इन सब को झारखंड में अनुसूचित जन जाति के रूप में मान्यता प्राप्त है और वे इस क्षेत्र में सदियों से आवासित हैं,बल्कि सदियों से यहाँ रहते रहे हैं.

इन आदिवासी जनजातियों का विकास हमेशा से एक गहन विमर्श का विषय रहा है. बिहार राज्य का विभाजन और झारखंड प्रदेश के निर्माण किए जाने के मूल में यही विमर्श रहा है.अपने मूल प्रदेश से इस क्षेत्र का भौगोलिक विभाजन हमेशा रहा और दोनों प्रदेशों की विकास प्राथमिकताएं भी अलग हैं.पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वालों का विकास का रास्ता,मैदानी क्षेत्र में रहने वालों के विकास आवश्यकताओं से एकदम भिन्न है.प्राथमिकताओं के सही निर्धारण न होने और अनुकूल नीतियों के नहीं होने के कारण कई देशों में विभिन्न जनजातियों के विलुप्त होने अथवा एसिमिलेशन के भी उदाहरण हैं.अपने देश में भी कई जनजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं.कई जनजाति भाषाएँ तो विलुप्त हो ही गई.और इस पर गहन विमर्श की चिंता कुछ एक बुद्धिजीवी फ़ोरम को छोड़कर कहीं नहीं दिखती.कुछेक सरकारी प्रयासों के इतर राजनीतिक विमर्श तो बन ही नहीं पा रहा.

आदिवासी लोग विशेष भौगोलिक क्षेत्र में विशिष्ट पहचान,कला और संस्कृति के साथ रहने वाले लोग हैं.सभी नृविज्ञानी एकमत से इस बात से सहमत हैं कि आदिवासी विकास की अवधारणा विकास की सामान्य अवधारणा से अलग होनी ही चाहिए. बल्कि आदिवासी अपने अवचेतन मन में हमेशा से अपने विकास की अलग धारणा रखने वाला व्यक्ति है.आदिवासी अपने समाज से जड़ों तक जुड़ा है और वह समाज प्रकृति से जुड़ा रहता है,तभी वहाँ जल जंगल जमीन की बातें होती हैं. हम सभी यह जानते हैं कि जब कोई नहीं था तब प्रकृति थी,जब कोई पैदा नहीं था तो प्रकृति थी और प्रकृति से इनका एकतरफा जुड़ाव ये साबित करता है कि आदिवासी अपने मिले नाम के अनुरूप धरती में सबसे पहले थे.

आदिवासी विकास के संदर्भ में स्वयं उसके विकास के नजरिये को समझना एवं उसके अनुरूप योजनाएं बना कर कार्यान्वयन की गहराई से समझ जरूरी है.किसी भी आउटसाईडर के लिए इनके मन और सोच को समझ पाना बहुत मुश्किल होता है.आजादी के समय आदिवासियों की विकास आवश्यकता की गहरी समझ वाले देश के प्रधानमंत्री नेहरू जी ने आदिवासी क्षेत्रों के सम्यक विकास के लिए अपना पंचशील का मॉडल दिया था.जिसके मूल में यह था कि आदिवासी इलाकों में विकास इंक्लूसिव एवं आदिवासियों की सक्रिय भागीदारी के साथ होना चाहिए.अर्थ यह कि इसमें स्थानीय जनसंख्या की आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान देते हुए उनकी सहभागिता के साथ विकास मॉडल तैयार किए जाने पर जोर दिया गया.इन्ही सब कारणों से राज्य बजट में ट्राइबल सब-प्लान का प्रावधान किया गया ताकि आदिवासी बहुल इलाक़ों में विशेष रूप से बजट का पैसा जा सके और उन क्षेत्रों में विकास निधि की कमी न हो.इस सब के बाद भी झारखंड में यहाँ के मूल निवासी आदिवासियों का अपेक्षित विकास नहीं हो सका है.इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक,नृवैज्ञानिक और सामयिक कारण रहे हैं.

आजीविका के हंटर गैदरर आर्थिकी से कृषि आधारित आर्थिकी में परिवर्तन के बाद भूमि पर स्वामित्व,परंपरागत कृषि और पशुपालन इनके जीवन का प्रमुख आधार रहा,जो कि कमोबेश अभी तक है.जिन आदिवासियों के पास ठीक ठाक भूमि का स्वामित्व रहा वे तुलनात्मक रूप से अच्छी आर्थिक स्थिति तक पहुंचे,उन्हीं में से कुछ नौकरी,रोजगार और स्वरोजगार की ओर उन्मुख हुए. शेष की स्थिति निरंतर संघर्ष और पलायन की ही रही.वर्तमान में क्लाइमेट चेंज के कारण वे जिन इलाकों में वास करते हैं,वहाँ इनके सामने सर्वाइवल का चैलेंज है.पिछले वर्षों में मौसम विशेष कर गर्मी और बरसात का पैटर्न बदला है और इनके परंपरागत वास इलाकों की आर्थिक पारिस्थितिकी में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है.आदिवासी मूलतः अनाजों और दलहन की खेती, जंगल और फलों एवं वनोत्पज पर निर्भर रहे हैं.मोटे अनाज़ की खेती,पशुपालन उनकी आजीविका का मुख्य आधार रहा है .शिक्षा,नौकरी अथवा व्यवसाय उनके लिए बहुत हाल का घटनाक्रम है.वस्तुतः जब तक आदिवासी मूलवासी इस क्षेत्र के एकलौते बहुसंख्यक निवासी थे उनके लिए आर्थिक संसाधन प्रचुर था,उनकी आवश्यकता कम थी,गांवों या निकटतम गांवों की सामूहिक आंतरिक अर्थव्यवस्था उनके आवश्यकताओं को पूरा कर रही थी.

वर्तमान स्थिति में आदिवासी क्षेत्रों में धान,गेहूँ की खेती के इतर मिलेट्स,दलहन,तिलहन, साथ ही सहजन,पपीता के अलावा और कई तरह के फलदार वृक्ष लगाने, सब्जी उत्पादन को बढ़ावा देना उनकी जीविका को मजबूती प्रदान करेगा और उन्हें आर्थिक स्वावलंबन की दिशा में आगे ले जायेगा.स्वयं झारखंड राज्य के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दिसोम गुरु शिबू सोरेन का दृढ़ता से मानना है कि आदिवासी तो सहजन पपीता की खेती,वनोत्पज के दोहन एवं पशुपालन को आधार बना कर समृद्धि पा सकता है,जिसका मूल भावार्थ यह है कि आदिवासी विकास के लिए उनकी पारंपरिक मुलभूत और जीवन पर्यंत के आर्थिक कार्यकलापों को समझने,गहन अध्ययन तथा तदनुसार उन्हें सहयोग प्रदान किए जाने की आवश्यकता है.

आदिवासी समाज अभी भी कृषि,पशुपालन और वनोत्पज पर आश्रित समाज है.इसके अतिरिक्त उनकी अर्थ व्यवस्था में कला विशेषकर विभिन्न हस्तशिल्प का विशेष योगदान है.

आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा,स्वास्थ्य सेवाओं के अपेक्षित विकास के साथ उपरिवर्णित कार्यकलापों के आसपास व्यवसायिक शिक्षण,प्रशिक्षण,कौशल विकास तथा स्वरोजगार के अवसर पैदा कर उनकी आर्थिक विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने की ओर राज्य को निश्चित रूप से कदम बढ़ाना होगा.क्रमश:

अगले ब्लॉग में आदिवासी क्षेत्रों के विकास की राह…….


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